मेरी फटी कमीज़ और स्कूल
मुझे ठीक- ठीक याद है कि जब मैं पढ़ने जाने लगा तो गणवेश की बाध्यता थी | अनिवार्य था गणवेश और समय की पाबंदी प्राथमिकता में थी | हमारा स्कूल हमारे घर से कुल ढाई किलोमीटर दूरी पर था | हमारा स्कूल आना - जाना पैदल होता था, पर सूकून था हमारे साथ हम उम्र चार - पांच लड़के और जाते थे हम सबसे छोटे थे | छोटे होने का लाभ था सभी लोग मेरी प्रतीक्षा करते और दुलारते भी और नुकसान ये था कि सभी लोगों का कहना मानना होता था | रास्ता लघु चुना गया था गाँव के खेत से तिरछे पगडंडियों और खेत के मेड़ो से होते हुए लगभग पैतालीस मिनट में स्कूल पहुँच जाते थे हम लोग | शुरू- शुरू में रोना आता था लेकिन धीरे - धीरे सब सामान्य हो गया | परन्तु जिस दिन किसी कारणवश अकेले आना - जाना होता तो लम्बा वाला रास्ता पकड़ कर आना होता जो घूम कर सड़क - सड़क गाँव पहुंचता | कारण यह था कि खेत वाला रास्ता निर्जन था और उसमें एक डरावना नाला जिसके दोनों किनारों पर सरपत का झुरमुट लगा था | वह ज्यादा डरावना इसलिए भी हो जाता क्योंकि उससे जुड़ी डरावनी दास्ताँ हमने दंतकथाओं में सुन रखी थी |
गणवेश (ड्रेस) फटा कैसे
एक बार गणवेश (ड्रेस) बन जाने के बाद लम्बा चलाना था | परन्तु माँ ने जो अपने हाथों से बेहतरीन सजावट के साथ प्लास्टिक की बोरी(खेत में यूरिया डालने से खाली हुई बोरी का) से जो पीट्ठू बस्ता (पीठ वाला )वह पीठ पर रखने और विद्या के बोझ तले मेरी कमीज़ पीठ और बस्ते के बीच में लगभग पैंतालीस मिनट रगड़ खाती और पिसती रहती, चाहे जाड़ा ,गर्मी या बरसात हो| कमीज़ की अधिक दुर्गति गर्मी और बरसात के मौसम में ही होती अंततः कमीज़ एक दिन फट गई | कमीज़ फट जाने की जानकारी किसी सहपाठी ने ही दी थी, थोड़े से उपहास के साथ, परन्तु उसने हमारी भलाई ही कि थी | मैं उस दिन पीठ दिवार के तरफ किए रहा और भोजनावकाश में खेलने भी नहीं गया | बार - बार दोस्तों के कहने पर मैंने मना कर दिया यह कह कर की तवीयत कुछ ठीक नहीं है आज मन नहीं कर रहा है जाओ तुम लोग खेलो | मैं छुट्टी होने की प्रतीक्षा करता रहा, छुट्टी होते ही मैं अपना पीट्ठू बस्ता पीठ पर लादा और पहले से आराम अनुभव कर रहा था क्योंकि अब वह कमीज़ का फटा भाग बैग के नीचे था | घर पहुंचते ही मां से कमीज़ की बात कहते हुए रोने लगा क्योंकि बाबूजी से तो कह नही सकता था | कोई भी बात बाबूजी से कहने के लिए माँ का सहारा लेना होता था और रोना तो रामबाण था | माँ ने बिना देर किए कहा कि मैं इस कमीज़ को तुरंत दुरुस्त कर देती हूँ चुप हो जाओ यह कहते हुए माँ ने मेरा सिर अपने हाथों में पकड़ कर अपने आंचल से आंसू पोंछते हुए कहा | पर मैंने कहा नहीं मुझे बाबूजी से नयी कमीज़ खरीदने के लिए कहो, इस बात पर समझाते हुए माँ ने कहा हां जरूर परन्तु बाबूजी के पास पैसे नहीं हैं | गेंहू बिका है व्यापारी से जैसे ही पैसे मिलेंगे तुम्हारे लिए एक अच्छी सी कमीज़ खरीदने को कहूंगी | मैं छोटा तो था परन्तु यह बात समझ गया | माँ के हाथों से बनाई कमीज़ पहन कर स्कूल जाता | कुछ दिनों बाद व्यापारी से पैसा मिला और बाबूजी ने हमारे लिए नया ड्रेस बनवा दिया |
जब भी कोई अवसर होता तो नये कपड़े के रूप में मैं ड्रेस ही बनवाता | ताकि फिर फटी कमीज़ न पहनना पड़े |
वही फटी कमीज़ आज भी मेरे सपने में आती है |
स्कूल में ड्रेस का भी अपना महत्व है परन्तु ऐसे में तो तोहमत हो ही जाती है
ReplyDeleteबहुत ही मार्मिक चित्रण , कमीज़ फटी लेकिन स्वाभिमान नहीं फटा |कमोबेश स्थित सबकी यही रही है | आप ने मार्मिक चित्रण किया आभार
ReplyDeleteआभार
ReplyDeleteअच्छा लेख
ReplyDeleteसुन्दर
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