डड़कटवा के विरासत जब सावन आवेला त रोपनी आ खेती जमक जाले , लोग भोरही फरसा (फावड़ा) लेके खेत के हजामत बनावे चल दे ला , ओहमें कुछ लोग स्वभाव से नीच आ हजामत में उच्च कोटि के होला ओहके डड़कटवा (खेत का मेड़ काट कर खेत बढाने की नाजायज चेष्टा रखने वाला व्यक्ति )के नाम से जानल जाला .. डड़कटवा हर गांव में लगभग हर घर में पावल जाले , डड़कटवा किस्म के लोग कई पुहुत (पुश्त) तक एह कला के बिसरे ना देलन , कारण इ होला की उनकर उत्थान -पतन ओही एक फीट जमीन में फंसल रहेला , डड़कटवा लोग एह कला के सहेज (संरक्षित ) करे में सगरो जिनिगी खपा देलें आ आवे वाली अपनी अगली पीढ़ी के भी जाने अनजाने में सीखा देबेलें , डड़कटवा के डाड़ (खेत का मेड़) काट के जेवन विजय के अनुभूति होखे ले , ठीक ओइसने जेइसन पढ़ाकू लइका के केवनो परीक्षा के परिणाम आवे पर पास होइला पर खुशी होखे ले | कुल मिला के जीवन भर डाड़ काट के ओह व्यक्ति की नीचता के संजीवनी मिलेले आ ओकर आत्मा तृप्त हो जाले बाकी ओके भ्रम रहेला की खेत बढ़ गईल , काहे की ,एकगो कहाउत कहल जाले की...
गांव की माटी आज मेरे गांव की माटी को लगा , मैं शहर में हूँ , उसे कैसे बताऊं , मैं सफर में हूँ , दिन तो कट जाता है, रोटी के जुगाड़ में, रात हंसती है , मैं बसर में हूं, जब से छूटी है नीम की छांव, आज यहां - कल वहां , किस कदर में हूं, छत तो नसीब है यहां भी , पर अरसे से पता नहीं, किसके घर में हूँ, स्थिर हो न सका आज तक, जैसे लगता है, अब भी मैं डगर में हूँ, रहगुजर तो मिले राह में, पर आज भी रहजनी के डर में हूं, अमराई ने हंसते हुए दिलासा दिया. लगाए गए हर शाख -शजर में हूँ, मां के कलेजे पिता की नजर में हूं , कुनबे के ढूंढते हर शख्श के नजर पे हूँ, महकती हर हवा की लहर में हूं, चहकती चिड़िया और ताल - तलैया ने जब पुकारा मुझे , अब लगा मैं घर में हूँ || ✍️viranjay