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डा० भीमराव अंबेडकर और वर्तमान

 बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर और वर्तमान भारतीय समाज  बाबा साहब  समाज में सामाजिक न्याय, समानता और मानवाधिकारों के सबसे बड़े पुरोधा माने जाते हैं। उनका जीवन संघर्ष व दलितों के अधिकारों के लिए समर्पण और भारतीय संविधान में उनके योगदान ने उन्हें सामाजिक क्रांति का सिम्बल बना दिया है। वर्तमान भारतीय राजनीति में उनका नाम अक्सर उद्धृत किया जाता है, परन्तु क्या आज की राजनीति उनके विचारों के अनुरूप चल रही है? क्या जातिवाद अब भी भारतीय समाज की जड़ में है? आइए इस पर एक स्वस्थ विमर्श करें. .. 1. बाबा साहब अम्बेडकर के विचार और उनका महत्त्व जाति व्यवस्था पर उनका दृष्टिकोण 'एनिहिलेशन ऑफ कास्ट' का विश्लेषण भारतीय संविधान में सामाजिक समानता का समावेश आरक्षण नीति की अवधारणा 2. वर्तमान भारतीय राजनीति में अम्बेडकर के विचारों की प्रासंगिकता राजनीतिक दलों द्वारा अम्बेडकर का प्रतीकात्मक प्रयोग सामाजिक न्याय बनाम चुनावी राजनीति आरक्षण की राजनीति और उसका दुरुपयोग दलित नेतृत्व का उदय और उसकी सीमाएँ 3. जातिवाद: आज भी जीवित और प्रबल आधुनिक भारत में जातिवाद के नए रूप शिक्षा, नौकरियों और न्याय व्यवस्था ...

आज कलम फिर से जय बोल

 आज कलम फिर से जय बोल

आजादी किसे कहें -  



एहसासों की आजादी का नाम शायरी हैं, भावनाओं की मुक्ति का नाम कविता है और यह तो उत्सव ही आजादी का हैं| यह तो जश्न ही स्वतंत्रता का है 1947 की आजादी केवल 150 बरस की आजादी के कशमकश और जद्दो-जहद का परिणाम नहीं है यह हमारी बहुत लंबी प्रतीक्षा के बाद का वह पल है जब इस पुण्य भूमि  भारत में ऋषियों की तपस्वियों की महनीय लोगों के इस देश ने यह अनुभव किया कि उनका पुरुषार्थ अब स्वतंत्र है ,जब देश की माताओं  ने अनुभव किया कि उनकी सोच की चुनर /आंचलअब स्वतंत्र है | जब इस देश की बेटियों ने अनुभव किया ....बज़ाज के लफ्जों में कि 'तेरे माथे का यह अंचल बहुत ही खूब है लेकिन तो इस अंचल को जो परचम बना लेती तो अच्छा था' ,  इस देश के बच्चों ने इस देश के खुदीराम बोसो ने इस देश की बेटियों ने इस देश की माताओं  ने सब ने मिलकर एक साथ कोशिश की और 15 अगस्त 1947 को जब सूरज निकला तो इस देश की तरफ मुस्कुरा कर देख रहा था और  अपने नौनिहालों से अपने बच्चों से कह रहा था कि , आजादी मुबारक हो आजादी आई तो कविता अपने आप को आजादी के साथ अनुनादित करने लगी 15 अगस्त की रात को जिस वक्त पूरी दुनिया सो रही थी और हिंदुस्तान आजाद हो रहा था, बहुत लंबी गुलामी के बाद मनुष्यता भारत की धरती पर अवतरित हो रही थी | 

आजादी की सुबह सजगता के गीत 

भारत के गीतकार गिरजा कुमार माथुर इस चिंता में थे की आजादी तो आ गई है , लेकिन इसके  पीछे की जो बीमारियां हैं उन्हें हमें नए मुल्क में नहीं ले जाना , 74 साल बाद भी यह शायरी प्रासंगिक है इसकी प्रासंगिकता आज भी समाप्त  नहीं हुई,  और वह थी यह कि ----
"आज जीत की रात पहरुए सावधान रहना ,
आज जीत की रात पहरुए   सावधान रहना ,
आज जीत की रात पहरुए  सावधान रहना ,
जले देश के द्वार अचल दीपक समान रहना,
 आज जीत की रात पहरुए सावधान रहना,
 हम जीते हैं आगे बढ़े हैं,
 ऊंची हुई मशाल ,
हमारे आगे कठिन डगर है ,
ऊंची हुई मशाल हमारे आगे कठिन डगर हैं|
 शत्रु है गया लेकिन उसकी छायाओं का डर है ,
शोषण से ग्रसित है समाज कमजोर हमारा घर है,
 शोषण से मृत है समाज कमजोर हमारा घर है,
 किंतु आ रही नई जिंदगी यह विश्वास अमर है,
 ज्ञान गंगा में ज्वार लहर ,
ज्ञान  गंगा में ज्वार लहरें तुम प्रमाण रहना ,
आज जीत की रात पहरुए  सावधान रहना ,
जले देश के द्वार अचल दीपक समान रहना,
आज जीत की रात पहरुए  सावधान रहना ||

मैं जब -जब आजादी के किस्से  सुनता हूं जब-जब उनके साथ गाए गुनगुनाए , लिखे गए नगमों  को सोचता समझता हूं तो आज के सोशल मीडिया की जिंदगी में जीते हुए मैं और आप जो अपनी किसी भी भावना को थोड़े से शब्दों में कुछ शब्दों में , एक प्लेटफार्म पर छोड़ देते हैं या किसी दूसरे प्लेटफार्म पर वीडियो के साथ लिख देते हैं तब की आजादी जब बोलना दुश्वार था , कहना दुश्वार था, लिखना दुश्वार था और एक विदेश के दुश्मन के खिलाफ अपने लोगों को जगे हुए भी रहना था कि मुश्किल से लड़ाई लड़ी गई मैं और आपके वह सोच सकते हैं अनुभव नहीं कर सकते भारतेंदु हरिश्चंद्र बहुत बड़े कवि थे |आप ने   उनका नाम जरुर सुना होगा उन्होंने पहेलियां लिखी थी एक पहेली उन्होंने ऐसी लिखी जो हिंदी समझने वाले अंग्रेजों तक को भी समझ में नहीं आई कि उनके खिलाफ है , लेकिन बाद में शिकायत हो गई और भारतेंदु के खिलाफ भी कार्यवाही   हुई | मुस्कुराए और देखिए कि कैसे हंसते मुस्कुराते हमारे कवियों ने शायरों ने इतनी बड़ी ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ जंग छेड़ी थी भारतेंदु ने पहेली  लिखी - 
"भीतर -भीतर सब रस चूस , हंसी-हंसी के तन -मन -धन मूस |
उत्तर -
के सखी साजन ना सखी अंगरेज ..... हंस - हंस के आपसे गले मिलकर जैसे चूहा सारा सामान अंदर अंदर खा लेता है ऐसे इस देश को खोखला कर रहा है विदेशी .... पहेली  पूछने वाली ने कहा क्यों सखि साजन तो उत्तर ना सखि अंग्रेज  ||

 

रक्त के कण कण में हिलोर 

 एक नाम और याद आता है मैं एक शब्द बोलूंगा और आपके अंदर का हिंदुस्तान आपकी नसों में हिलोर लेने लगेगा वंदे मातरम गीत बंकिम बाबू के उपन्यास आनंद मठ में आया लेकिन आनंद मठ में आने से पहले एक पत्रिका में एक छोटी जगह कम पड़ गई थी और संपादक बंकिम बाबू के दोस्त थे नाम था रामचंद्र बंदोपाध्याय कागज पर लिखा देखा वंदे मातरम पूछा आपने इसमें बांग्ला लिख दिया  यह सामान्य आदमी को क्या समझ में आएगी इस कौन पढेगा, कौन समझेगा मुस्कुराते बंकिम बाबू ने कहा जुबान की कठिनता और सरलता का मसला नहीं है इसका संदेश बड़ा है एक दिन आजादी मांगने वाले और आजाद रहने वाले हर इंसान की जबान पर यह नगमा होगा और आज जब भी वंदे मातरम बजाता है चाहे सरहद के पार बजे चाहे सरहद के अंदर बजे वह बाहर किसी वाद्य यंत्र पर नहीं बजता वह रक्त के एक-एक कण में बजता है ,आत्मा में बजता है ,मन में बजता हैं, मस्तिष्क में बजता है आपको बहुत अंदर तक छूएगा |


आजादी का नगमा 


कभी प्रदीप ने 1940 में बंधन फिल्म किस्मत का गाना 1943 में आया और गाना क्या था 
"दूर हटो ऐ दुनिया वालो हम हैं हिंदुस्तानी "  हमारा  पूरा देश जाग गया इस गाने से दुनिया वालों यानी यूनियन जैक लेकर इस देश का शोषण करने वाला अंग्रेज ब्रिटिश सत्ता और उसे हमारा कभी 1943 में कह रहा है फिल्मों में बैठकर दुनिया वालो हिंदुस्तान हमारा है आप क्या  समझते हैं प्रदीप बाहर रह जाते ? अंग्रेजों को यह गाना बहुत नागवार गुजरा और उन्होंने  प्रदीप बड़नगर मध्य प्रदेश के रहने वाले कवि प्रदीप के लिए गिरफ्तारी का वारंट जारी कर दिया और गिरफ्तारी से बचने के लिए कवि प्रदीप को भूमिगत  होना पड़ा  |
 भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने लता दीदी स्वर लता ,स्वर कोकिला लता दीदी के स्वर में जब कभी प्रदीप का गाना सुना  1962 के चाइना वार के बाद "ए मेरे वतन के लोगों जरा आंख में भर लो पानी" तो वह भी रोए और देश भी रोया , कवि प्रदीप ने अपना गीत अपनी टेबल पर बैठकर नहीं लिखा ,बाजार में जा रहा थे , पेन कुर्ते की जेब में लगा हुआ था और  सोचते जा रहे थे कि आज जो चले गए लौटकर नहीं आए उनके लिए भी एक नगमा हो , 
उन्हें भी याद करें , यह मुल्क याद करे और उनके लिए भी अपनी आंखों में पानी अब लाईन और इसकी पहली पंक्ति बन गई अब इस पहली पंक्ति को लिखा कहां जाए टाइम तो है तो प्रदीप कहते हैं-  कि मेरे साथ चलते हुए आदमी से कहा कि भाई साहब आपके पास कोई कागज है मुझे जरुरी बात लिखनी  है ,आजादी का इतना बड़ा नगमा अपने आप को धरती पर लाने के लिए कागज ढूंढ रहा था |
उस आदमी ने अपनी जेब से सिगरेट की एक डिब्बी निकाली  आखिरी सिगरेट मुंह पर लगा कर  डिब्बी में  लगी अंदर की पिन्नी खींच कर कहा भाई इस पर लिख लेंगे क्या ? और प्रदीप ने यह अमर नगमा उस पन्नी के ऊपर लिखा और यह गाना सदियों के लिए अमर हो गया |
 23 मार्च हम सबको याद है बहुत पवित्र दिन है इस दिन बब्बर ए हिंदुस्तान भगत सिंह ने फांसी का फंदा चूमा  था और आने वाली नस्लों में माताओं ने स्वप्न  देखे थे कि उनकी कोख से भगत सिंह जैसा बेटा पैदा हो लेकिन 28 सितंबर कम लोगों को याद है साल 1907 जिस दिन भगत सिंह का जन्मदिन है इस साल में एक बात और भी है , यह गाना - 'मेरा रंग दे बसंती चोला '। 
इस गाने के इतिहास को लेकर बहुत सारे मत  हैं,  बहुत सारे लोग कहते हैं कि यह  लखनऊ के जेल में काकोरी कांड के कैदी बने आप सबको याद है की काकोरी में रेल लाद कर भारत का खजाना ले जा रहे थे उसको हिंदुस्तान के बेटों ने लूट लिया था जिनमें पंडित राम प्रसाद बिस्मिल, पठान अशफ़ाकउल्ला खान और ठाकुर रोशन सिंह के साथ बहुत सारे क्रांतिकारी थे वह सब एक साथ गए थे सब जानते हैं कि बिस्मिल शायरी करते थे कविताएं लिखते थे तो साथियों ने अपने साथ बंद शाहजहांपुर के एक दूसरे अमर शहीद और बेहद अद्भुत क्रांतिकारी पंडित राम प्रसाद बिस्मिल से कहा पंडित जी बसंत आ रहा है जेल में पड़े -पड़े कुछ तो लिखिए आप तो शायर आदमी है-- 


 बस क्या था बिस्मिल ने जेल में लिखना आरम्भ  किया , सलाखों  के पीछे उसे छोटी सी कोठरी  से हिंदुस्तान में आने वाले बसंत की आहट महसूस की तो 15  अगस्त को इसी रंग में गांधी जी के  नमक आंदोलन को लिखा ,हमारे यहां कुछ लोग हैं जो भगत सिंह को एक खांचे में देखते हैं बिस्मिल को एक खाचें में देखते हैं और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को दूसरे खाचें में देखते हैं लेकिन जेल के शिकचों  के पीछे बैंठ बिस्मिल अगर गाना लिख रहे हैं तो उसका पहला मिसरा , उसकी पहली लाईन   समर्पित कर रहे हैं महात्मा गांधी को 1931 में पत्रिका छपती थी  अभ्युदय उसमें मूल गीत छपा और यह भी कहा गया की भगत सिंह ने आखिरी वक्त फांसी के फंदे को चूमते  हुए  सुखदेव ,राजगुरु के साथ इस नगमे  को गया था इसका सबसे पहला एडिशन 1927 में जिस तरह था |
 Dr. Kumar viswas ने सुनाया  आपको बता रहा हूं 
"मेरा रंग दे बसंती चोला ,
मेरा रंग दे -मेरा रंग दे  बसंती चोला ,
मेरा रंग दे इसी रंग में वीर शिवा ने मां का बंधन खोला ,
 मेरा रंग दे  बसंती चोला ,
मेरा रंग दे ,
इसी रंग में भगत- दत्त ने छोड़ा बम का गोला ,
मेरा रंग दे  बसंती चोला ,
इसी रंग में भगत दत्त ने छोड़ा बम का गोला ,
मेरा रंग दे  बसंती चोला ,
मेरा रंग दे ,
इसी रंग में पेशावर में पठानों ने सीना खोला ,
 मेरा रंग दे ...

(पेशावर जब दूसरी तरफ है पर आजादी तो साथ मिली) 
इसी रंग में पेशावर में पठानों ने सीना खोल ,
मेरा रंग दे  बसंती चोला ,
मेरा रंग दे ....
इसी रंग में बिस्मिल्लाह -अशफाक ने सरकारी खजाना खोला ,
 मेरा रंग दे  बसंती चोला,
 मेरा रंग दे ....
(बहुत सारे तो ऐसे क्रांतिकारी हैं जिनका जिक्र ही नहीं होता इसीलिए मैंने महाकवि दिनकर की इस लाइन से आज शुरू किया ... "कलम आज उनकी जय बोल जो चढ़ गए पुण्य  बेदी पर बिना लिए गर्दन का मोल "
    .... वंदे मातरम् ......

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