डड़कटवा के विरासत जब सावन आवेला त रोपनी आ खेती जमक जाले , लोग भोरही फरसा (फावड़ा) लेके खेत के हजामत बनावे चल दे ला , ओहमें कुछ लोग स्वभाव से नीच आ हजामत में उच्च कोटि के होला ओहके डड़कटवा (खेत का मेड़ काट कर खेत बढाने की नाजायज चेष्टा रखने वाला व्यक्ति )के नाम से जानल जाला .. डड़कटवा हर गांव में लगभग हर घर में पावल जाले , डड़कटवा किस्म के लोग कई पुहुत (पुश्त) तक एह कला के बिसरे ना देलन , कारण इ होला की उनकर उत्थान -पतन ओही एक फीट जमीन में फंसल रहेला , डड़कटवा लोग एह कला के सहेज (संरक्षित ) करे में सगरो जिनिगी खपा देलें आ आवे वाली अपनी अगली पीढ़ी के भी जाने अनजाने में सीखा देबेलें , डड़कटवा के डाड़ (खेत का मेड़) काट के जेवन विजय के अनुभूति होखे ले , ठीक ओइसने जेइसन पढ़ाकू लइका के केवनो परीक्षा के परिणाम आवे पर पास होइला पर खुशी होखे ले | कुल मिला के जीवन भर डाड़ काट के ओह व्यक्ति की नीचता के संजीवनी मिलेले आ ओकर आत्मा तृप्त हो जाले बाकी ओके भ्रम रहेला की खेत बढ़ गईल , काहे की ,एकगो कहाउत कहल जाले की...
लोक परम्पराओं का निर्वहन व विसंगति
क्या हुआ होगा पहली दिवाली पर जब त्रैलोक्य विजेता मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम पूरे जगत का दिल जीत कर अपनी अनुपम नगरी अयोध्या पुनरागमन पर पलक बिछा कर निर्निमेष दीपमाला प्रज्ज्वलित कर स्वागत किए होंगे |
राघवेंद्र सरकार ने अपने चरण धरा पर रखते ही आचरण का ऐसा दैदीप्यमान हस्ताक्षर किया कि आज भी समूचा जगत उस मर्यादा रद्दा पर रद्दा रखते हुए आचरण व संस्कार का कंगूरा खड़ा कर स्वयं को संस्कारी संस्कृति का सदस्य बताता है |
दीपावली के दिन माँ लक्ष्मी और गणेश पूजनोत्सव के साथ दीपमाला की श्रृंखलाएं मानव मात्र के जीवन जिजिविषा को प्रतिबिम्बित करते हैं |
ईश्वर पइस दलीद्दर निकला -
पूरे भारतवर्ष में संस्कृतियों और परम्पराओं की विविधता मनोहारी तथा चिंतन पर विवश करती है।
दरिद्र (दलीद्दर )बहिर्गमन की परम्परा उन्ही परम्पराओं का हिस्सा है ,देश के कोने - कोने में इस परम्परा के मानने - मनाने के तौर तरीके अलग हो सकते हैं परन्तु उसका उद्देश्य एक है , अपने घर से दु:ख और दरिद्र का बहिर्गमन व शांति की अभीष्ट आकांक्षा होती है ,परन्तु इस परम्परा के निर्वहन की रीति नीति जुदा है |
देश के कुछ हिस्सों में दीपावली के दिन भोर में पुरानी डाली ,सूप ,बेना ,दौरे और गत्ते अथवा डिब्बों को कजरौटा (बच्चों को काजल लगाने का पात्र) या धातु के प्रहार से बजाते हुए ,एक दीपक साथ में लेकर दरिद्र बहिर्गमन की प्रक्रिया आरम्भ होती है ,यह करने वाली महिला अपने मुह एक पुनरावृति वाक्य दोहराती रहती है , "ईश्वर पैठस (पइस) दलीद्दर निकला " यह मंत्र मन को बल प्रदान करता और दु:ख -दरिद्र बाहर ले जाकर जलाते हैं और उसकी लपट में स्वयं को सेंकते हैं ,लौटते हुए महिलाएं (लोक बोली में )कुछ समूह गीत गाती हैं |(तर्क दरिद्र बहिर्गमन कर लक्ष्मी का प्रवेश होगा)
दुसरा--–-----देश के अधिकांश हिस्सों में उक्त प्रक्रिया दीपावली की सुबह होती (तर्क व्यक्ति के बाहर करने दरिद्र बहिर्गमन नहीं होगा , भगवान अथवा लक्ष्मी के आगमन से दरिद्र बहिर्गमन होगा)
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