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डा० भीमराव अंबेडकर और वर्तमान

 बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर और वर्तमान भारतीय समाज  बाबा साहब  समाज में सामाजिक न्याय, समानता और मानवाधिकारों के सबसे बड़े पुरोधा माने जाते हैं। उनका जीवन संघर्ष व दलितों के अधिकारों के लिए समर्पण और भारतीय संविधान में उनके योगदान ने उन्हें सामाजिक क्रांति का सिम्बल बना दिया है। वर्तमान भारतीय राजनीति में उनका नाम अक्सर उद्धृत किया जाता है, परन्तु क्या आज की राजनीति उनके विचारों के अनुरूप चल रही है? क्या जातिवाद अब भी भारतीय समाज की जड़ में है? आइए इस पर एक स्वस्थ विमर्श करें. .. 1. बाबा साहब अम्बेडकर के विचार और उनका महत्त्व जाति व्यवस्था पर उनका दृष्टिकोण 'एनिहिलेशन ऑफ कास्ट' का विश्लेषण भारतीय संविधान में सामाजिक समानता का समावेश आरक्षण नीति की अवधारणा 2. वर्तमान भारतीय राजनीति में अम्बेडकर के विचारों की प्रासंगिकता राजनीतिक दलों द्वारा अम्बेडकर का प्रतीकात्मक प्रयोग सामाजिक न्याय बनाम चुनावी राजनीति आरक्षण की राजनीति और उसका दुरुपयोग दलित नेतृत्व का उदय और उसकी सीमाएँ 3. जातिवाद: आज भी जीवित और प्रबल आधुनिक भारत में जातिवाद के नए रूप शिक्षा, नौकरियों और न्याय व्यवस्था ...

कजरी एक लोकरस

 लोक विधाएं - लोकरस


                 चित्र साभार डा० मन्नू कृष्ण की पुस्तक का आवरण पृष्ठ 

लोक कलाएं आमजन की अभिव्यक्ति का प्रबल  माध्यम हैं | प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में  लोक कला का अपना अलग महत्त्व है | लोक कलाएं  केवल मनोरंजन का साधन मात्र नहीं हैं, बल्कि इनमें भाषा ,विज्ञान, इतिहास, भूगोल ,सांस्कृतिक विरासत ,सभ्यता और  जीवन की सारगर्भिता के दर्शन भी होते हैं  |
लोक कलाएं  लोक अभिव्यक्ति के साथ -साथ संचार का सशक्त माध्यम हैं |
लोक कलाओं में लोक गीतों का अनूठा महत्त्व है लोक गीत लोक कण्ठ से अनायास, कौमार्य और पवित्रता लिए  प्रस्फुटित होते हैं  ,लोकगीतों का उद्देश्य केवल संचार और  मनोरंजन रहा है |
कोई  साहित्य  जितना लिखा  जाए उससे ज्यादा पढ़ा जाता है ,जितना पढा जाए उससे ज्यादा सुना जाता है। 
  जब साहित्य सुना जाए तो वह गायन विधा में हो तो कर्ण प्रिय होता है ,जब कर्ण प्रिय हो तो शीघ्र ही अङ्गीकार हो जाता है |
 इसलिए हमने लोकगीत /लोक कला (कजरी ,फगुआ,बिरहा ,चैता, सोहर ,श्रम गीत, गारी ,सगुन ) को लोकरस कहना उचित समझा | इन विधाओं की प्रस्तुति कुशल कलाकार द्वारा होतो इन लोक रसों के रसपान से श्रोता मंत्रमुग्ध और विभोर हो जाते हैं |

कजरी और मान्यताएं - 

सामान्यता कजरी भारत के हर हिस्से में अलग -अलग नामों से प्रचलित है |देश के हर हिस्से में  ऋतु गीतों का गायन होता है उसमें वर्षा ऋतु में  ग्राम्यांचल के लोक के कण्ठ से प्रस्फुटित  लोकगायन कजरी है |
"कजरी मीमांसा "पुस्तक के लेखक डा० मन्नू कृष्ण के अनुसार " मां विन्ध्वासिनी की कालरात्रि पूजा के आवरण काजल के समान कपालिनी रूप को निखरते हुए बादलों की काली घटाओं के आवरण के मध्य पूजित मातृ रूप तथा पूजा की विधि में नारी राग को ही कजरी गायन शैली के संदर्भ में लोक मान्यता के अनुसार कजरी कहते हैं "|

कजरी एक ऋतु गीत -

भारत में ऋतुओं के अलग -अलग गीत हैं, ये  बात अलग है कि देश के विभिन्न हिस्सों में  आंचलिक बोलियों में आम जनमानस के कंठ से प्रस्फुटित लोकगीत ऋतु गीत होते हैं। 
जैसे फाल्गन में फगुआ, चैत में चैता और  सावन में कजरी. .
१- जब आसमान में  घनघोर घटाएं नायिका के काले केशों की तरह लोटते हुए , नव ब्याहता दुल्हन की नजाकत सी पुरवाई बयार के इशारे पर जब बहकती और टहलती दिखती है तो देखने वाले का मन मयूर हो जाता है और  कण्ठ से फूटता है ऋतु गीत "कजरी " उत्तरप्रदेश के  पूर्वांचल में "ढुनमुनिया" कजरी 
साहित्यकार डा०मन्नू कृष्ण ने  कजरी के विभिन्न प्रकार सुझाए हैं  |
कुछ कजरी के बोल -
 कैसे खेलन जइबे हो सावन में कजरिया बदरिया घिर -घिर आवे ले बलम...........

अर्थ -नायिका अपने पति से कहती है कि हम कजरी उत्सव मनाने अपने सखियों के बीच कैसे जाएं ,बादल घनघोर हुए आ रहे हैं |
२- सइयां मेहंदी मंगा द३ ,मोती झील से जाइके साईकिल से ना ..........
अर्थ -कजरी के उत्सव में सुहागन अपने श्रृंगार से एक दूसरे को सुसज्जित करती हैं ओर अपने हाथों पर  मेहंदी सजाती हैं, तो नायिका अपने पति से मनुहार करती है कि मुझे ,मोतीझील की मेहंदी साइकिल जाकर ला दीजिए |
३- झूला डार देबे नेबुआ अनार में ,सावन के बहार में ना ....
अर्थ - नायिका कहती है कि मैं  इतनी उतावली हूं कि नीबू और  अनार जैसे नाजुक पौधों पर भी झूला डाल दूंगी |
इससे यह मालूम होता है कि कजरी एक ऋतु गीत है |

छत्तीसगढ़ी - 

में यही गीत - "सावन आगे आबे आबे आबे आबे संगी हो
सावन आगे आबे आबे आबे आबे संगी हो

धरती सबो हरियागे
घटा बादल करियागे
पुरवईया निक लागे हो~

सावन आगे आबे आबे आबे आबे संगी हो"........

कजरी एक श्रम गीत -

सावन ,भादो में जब रोपनहारिन धान रोपते (धान का पौधा लगाते) हुए गीत गाएं , धान की निराई में कण्ठ से रागित ध्वनी फूटे वह भी कजरी है , श्रम करते हुए उस श्रम को उत्सव में बदलने का माद्दा मात्र लोक कला में  ही है और  कुछ क्षण के लिए घाम - बतास ,बारिस , कीचड़ - कादो ,की पीड़ा भूल कर रोपनहारिन कब गावनहारिन बन जाती हैं पता नहीं चलता  और  काम उत्सव में बदल कर  पूरा हो जाता है | 
जैसे - 
हरि -हरि खेतवा रोपे रोपनहारिन, रोपे हो हरि.....

कजरी प्रेम (श्रृंगार )  गीत - 

कजरी की विभिन्न विधियों का दर्शन अनायास हुआ इसमें गायन की कोई विशेष योजना नहीं रही की इस विधा में  गाएं अथवा संकलित  करें ,क्योंकि यह वस्तुत: आम जनमानस के आनन्द से स्वत:प्रसूत है ,इसका एकमेव उद्देश्य संचार और मनोरंजन है ,इनको श्रेणियों में बांटने का काम साहित्यकारों व समीक्षकों का था जो बाद में हुआ |
      कजरी को अगर मुहब्बत का गीत कहा जाय तो अधिक तर्कसंगत लगता है|
कजरी में संयोग श्रृंगार और वियोग श्रृंगार दोनों के दर्शन समान रूप से  होते हैं |
       कजरी में संयोग श्रृंगार - 
जब नायक और नायिका संयोग (मिलन ) से जो भाव उत्पन्न हो उसे संयोग श्रृंगार कहते हैं  ,कजरी के कुछ बोल जिसमें राधा- कृष्ण के मिलन उत्सव को लोकध्वनियां कैसे उद्घाटित करती हैं -
 "झूला डार कदम के डारी 
    झूलैं कृष्ण मुरारी ना,
  राधा झूलें कान्हा झूलावें
     श्याम के अंग लगावैं,
रहि -रहि मारे पटेंग बनवारी ,
झूले कृष्ण मुरारी ना ||

  कजरी में वियोग श्रृंगार -
जब किसी सुहागन /नायिका  का पता/ प्रेमी  परदेश में  हो और नायिका उस विरक्ति की अभिव्यक्ति करे तो वह वियोग श्रृंगार होता है 
जैसे कुछ बोल -

      "सखी श्याम बिनु सोहे ना सवनवा

        अंग अंग में अनंग बेधे बाउर मन मतंग ,
             नीक लागे नहीं घरवा अंगनवा  ,
           सखी श्याम बिनु सोहे ना सवनवा ना.......,...."
 ये बोल श्रृंगार में भींगे हुए  हैं |

कजरी एक स्तुति गीत -

अपने अराध्य को रिझाने प्नसन्न करने अथवा स्मरण करने हेतु जो बोल फूटे उन्हें स्तुति गीत की श्रेणी में रख सकते हैं -
   " रोवत आज बिरज नर- नारी ,
      कहां गै बनवारी ना 
    सून जशुदा के दुआरी ,
      कहां गै बनवारी ना |
     बाबा उधौ जाइ मनावा ,
   झट -पट कान्हा के ले आवा ,
   खोजत बिरज ,नर -नारी, 
   कहां गै बनवारी  ना ....."
यह बोल अपने अराध्य नटरवरनागर ,मुरली के बजैया ,कृष्ण- कन्हैया को स्मरण करते हुए बहुत अनुराग में लोक के लोग गाते मिलेंगे |

हिन्दी सिनेमा में कजरी -

      हिन्दी सिनेमा में कजरी का परिष्कृत रुप प्रयोग हुआ जो लोक गीतों की तरह पवित्रता और कौमार्य लिए  स्वत: अथवा अनायास तो नहीं आया परन्तु लोकगीत से प्रेरित रहा -
 जैसे -
          हाय -हाय ये मजबूरी ,
          ये चाहत और  ये दूरी 
          तेरी दो टके की नौकरी में 
          में मेरा लाखों का सावन जाए ....

कजरी महोत्सव -

समूचे देश में  कजरी भिन्न -भिन्न रूपों में चलन में है ,परन्तु उत्तरप्रदेश के पूर्वांचल में विशेष रूप से मीरजापुर में कजरी महोत्सव धूमधाम से मनाया जाता है. ... विभिन्न सांस्कृतिक आयोजन होते हैं और  कजरी के उन्नयन के प्रयास होते हैं |
इस दिन सरकारी संस्थानो में अवकाश रहता है ,,सभी कजरी महोत्सव में भाग लेते हैं  ,इस बार कजरी महोत्सव 2 सितम्बर को मनाया जाएगा |
 

        कजरी गायन के वाद्य -

कजरी गायन में मूलत: ढोल ,झाझ ,झाल ,मृदंग हारमोनियम  प्रयुक्त  थे ,परन्तु अब तो कजरी अथवा लोकगीतों ने आधुनकि वाद्य यंत्रों को को आकर्षित किया और अपने राग में बजने को मजबूर किया है |
         परन्तु कजरी आज भी लोक संचार और  मनोरंजन का सशक्त माध्यम है ,लोककलाकार  कजरी को अधिक उन्नति के तरफ ले चले हैं |




Comments

  1. आज की युवा पीढ़ी पाश्चात्य संस्कृति के आकर्षण में गीत संगीत और कलाओं के अपभ्रंश व अपनेआपको मानसिक बीमार बना रहे हैं, जबकि कजरी लोकगीत और भारतीय संस्कृति की विरासत है और उस विरासत के संरक्षण में आपका यह योगदान मील का पत्थर साबित होगा

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  2. Kajari mahotsav...kab hai 2023ka

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