Skip to main content

डड़कटवा के विरासत

 डड़कटवा के विरासत जब सावन आवेला त रोपनी आ खेती जमक जाले , लोग भोरही फरसा (फावड़ा) लेके खेत के हजामत बनावे चल दे ला , ओहमें कुछ लोग स्वभाव से नीच आ हजामत में उच्च कोटि के होला ओहके डड़कटवा (खेत का मेड़ काट कर खेत बढाने की नाजायज चेष्टा रखने वाला व्यक्ति )के नाम  से जानल जाला .. डड़कटवा हर गांव में  लगभग हर घर में  पावल जाले , डड़कटवा किस्म के लोग कई पुहुत (पुश्त) तक एह कला के बिसरे ना देलन  , कारण इ होला की उनकर उत्थान -पतन ओही एक फीट जमीन में  फंसल  रहेला  , डड़कटवा लोग एह कला के सहेज (संरक्षित ) करे में सगरो जिनिगी खपा देलें आ आवे वाली अपनी अगली पीढ़ी के भी जाने अनजाने में सीखा देबेलें , डड़कटवा के  डाड़ (खेत का मेड़) काट के जेवन विजय के अनुभूति होखे ले , ठीक ओइसने जेइसन  पढ़ाकू लइका के केवनो परीक्षा के परिणाम आवे पर पास होइला पर खुशी होखे ले |       कुल मिला के जीवन भर डाड़ काट के ओह व्यक्ति की नीचता के संजीवनी  मिलेले आ ओकर आत्मा तृप्त हो जाले बाकी ओके भ्रम रहेला की खेत बढ़ गईल , काहे की ,एकगो कहाउत कहल जाले की...

लोक विधाओं का संरक्षण एक तपस्या


लोक विधाओं का संरक्षण एक तपस्या


लोक विधा- लोक विधा से आशय आम जनमानस के हृदय संवेगों को मुखरित करती विधा |
जनसामान्य की भाषा को आवाज देती एक विधा |लोक विधा हैं, लोक गीत, लोक नाट्य, लोक नृत्य और लोक गाथाओं का कोई रुप |
लोक विधा से आशय अभिजात्य के अहंकार से परे परम्पराओं और संस्कृतियों को संरक्षित पोषित करने की एक विधि |इसमें आंचलिकता और उसकी एतिहासिक समृद्धि तथा गाथा को अगली पीढ़ी को हस्तांतरित करने की  पुरजोर जिजीविषा होती है | 
  परम्पराएं और संस्कृतियां  किसी भी स्थान के उत्थान की साक्षी और भागीदार होती हैं ,जिनका बहुत ही तेजी से क्षरण हो रहा है | 
 परिणाम -जिसका परिणाम है सामाज का मानसिक दिवालियापन और आधुनिकता के नाम पर विषाक्त पाश्चात्यिकरण व कुसंस्कार का पल्लवन |
   कारण -कारण है लोक विधाओं के तरफ से विमुख होना  ,उसे भूल जाना, उसे भाव न देना, उसके उन्नयन, संरक्षण व समृद्धि हेतु शासन, समूह अथवा व्यक्तिगत रूप से कोई प्रयास न करना ,जो प्रयास करे उसकी उपेक्षा करना |
            लोक विधाओं लोक गीत, लोक नृत्य, लोक गाथाएँ आमजन की भाषा में आमजन की कथा - व्यथा , परम्परा और संस्कृति को समृद्ध और संरक्षित करते हुए हस्तांतरण का काम करती है परन्तु इन्हें संरक्षित करने हेतु लिपिबद्ध करने का काम बहुत कम हुआ है और किसी ने किया भी है तो केवल एकतरफा अक्सर होता यह है कि लिखने वाला गेय पक्ष से वंचित रहता है अथवा आंशिक हुनर वाला होता है और गायक लिखने की कला से अनभिज्ञ रहता है |
          परन्तु  डॉ० मन्नू यादव जो पेशे से शिक्षक हैं , इन्होंने लोक विधा को बखूबी जिया है, बिरहा विधा जो पूर्वांचल की पहचान रही है उसको अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पहुंचाने का गौरव डॉ० साहब को प्राप्त है, डॉ० मन्नू का बिरहा  चैता,फगुआ, कजरी आल इण्डिया रेडियो,आकाश वाणी, दूरदर्शन व सरकार के विभिन्न आयोजनों में लोगों के आकर्षण का केंद्र रहे हैं |  लोग जब इस परम्परा के आदी हों की हमारी मौलिकता भारतीय योग अमेरिका से योगा बनकर लौटेगा तब अपनाएंगे, बिरहा, कजरी, चैता  जब फिल्मों में आएंगे तब ताली बजाएंगे पर अपने यहाँ कहेंगे हमें नहीं समझ में आता या अच्छा नहीं लगता | अपनी लोक विधा, लोकभाषा और लोक परम्पराओं से पल्ला झाड़ना अथवा विमुख होना ठीक वैसे ही है जैसे कोई अफसर अपने किसान - मजदूर पिता को अपने वर्तमान अभिजात्य समाज में पहचानने से इन्कार कर दे | इस दौर में हमने डॉ० मन्न्नू  जी  को लोक विधा के लिए जीते - मरते देखा है | बहुत कम ऐसा देखने को मिलता है जब जो लिखे वह गाए भी पर  डॉ० साहब इस हुनर से समृद्ध हैं जो गाते भी और लिखते भी हैं | हम देखते हैं विधा को लिपिबद्ध होने पर संरक्षित तो किया ही  जा सकता है परन्तु गेय पक्ष को   हस्तांतरण ही करना पड़ता है जिसके लिए डा० मन्नू ने एक बिरहा अकादमी का भी क्रियान्वयन शुरू किया है |  डॉ०  मन्न्नू  ने दो पुस्तकों की रचना की एक बिरहा पर आधारित है  और दूसरी कजरी मीमांसा  | कजरी मूलतः मीरजापुर की सांस्कृतिक पहचान है, यहाँ आमजन में प्रचलित कजरी " "मीरजापुर के कइल३ गुलज़ार कचौड़ी गली  सून कइल...... " 
          "सइंया मेंहदी लियइहा मोती झील से जा के साइकिल से ना.... "
   " नाही कामिनी कलेवर कश में,
विह्वल सोरहै बरस में ना।. 
क्रांतिकारी / देश भक्ति कजरी.."सत सम सत्य अहिंसा स्वतंत्र हिंदुस्तान से निकला, 
बापू के जुबान से निकला, 
भारत के मुस्कान से निकला ना।"

केवल  मीरजापुर ही नहीं अपितु समूचे उत्तर प्रदेश और बिहार तक बहुत चाव से गाया जाता है|
    डॉ० मन्न्नू की रचना  कजरी मीमांसा का औपचारिक विमोचन  वर्तमान     लोक गीत साम्राज्ञी , पद्म श्री मालिनी अवस्थी   द्वारा किया गया  | आज से यह लोक कृति आम जनता के लिए उपलब्ध होगी |
             यहाँ क्लिक करें




सम्पूर्ण कला जगत व कला प्रेमियों के लिए गौरव का क्षण है   |https://youtu.be/wwG7x_cDGD4
पुस्तक विमोचन के कार्यक्रम की एक क्लिप 

  

Comments

  1. अनमोल धरोहर को सजोंने और सवारने के लिए एक प्रयास

    ReplyDelete
  2. लोकविधाओं की मशाल के लीविंग लीजेंड

    ReplyDelete
  3. वाह अद्भुत

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

इसे साहस कहूँ या बद्तमीजी

इसे साहस कहूँ या     उस समय हम लोग विज्ञान स्नातक (B.sc.) के प्रथम वर्ष में थे, बड़ा उत्साह था ! लगता था कि हम भी अब बड़े हो गए हैं ! हमारा महाविद्यालय जिला मुख्यालय पर था और जिला मुख्यालय हमारे घर से 45 किलोमीटर दूर!  जिन्दगी में दूसरी बार ट्रेन से सफर करने का अवसर मिला था और स्वतंत्र रूप से पहली बार  | पढने में मजा इस बात का था कि हम विज्ञान वर्ग के विद्यार्थी थे, तुलना में कला वर्ग के विद्यार्थियों से श्रेष्ठ माने जाते थे, इस बात का हमें गर्व रहता था! शेष हमारे सभी मित्र कला वर्ग के थे ,हम उन सब में श्रेष्ठ माने जाते थे परन्तु हमारी दिनचर्या और हरकतें उन से जुदा न थीं! ट्रेन में सफर का सपना भी पूरा हो रहा था, इस बात का खुमार तो कई दिनों तक चढ़ा रहा! उसमें सबसे बुरी बात परन्तु उन दिनों गर्व की बात थी बिना टिकट सफर करना   | रोज का काम था सुबह नौ बजे घर से निकलना तीन किलोमीटर दूर अवस्थित रेलवे स्टेशन से 09.25 की ट्रेन पौने दस बजे तक पकड़ना और लगभग 10.45 बजे तक जिला मुख्यालय रेलवे स्टेशन पहुँच जाना पुनः वहाँ से पैदल चार किलोमीटर महाविद्यालय पहुंचना! मतल...

उ कहाँ गइल

!!उ कहाँ गइल!!  रारा रैया कहाँ गइल,  हउ देशी गैया कहाँ गइल,  चकवा - चकइया कहाँ गइल,         ओका - बोका कहाँ गइल,        उ तीन तड़ोका कहाँ गइल चिक्का  , खोखो कहाँ गइल,   हउ गुल्ली डण्डा कहाँ गइल,  उ नरकट- कण्डा कहाँ गइल,           गुच्ची- गच्चा कहाँ गइल,           छुपा - छुपाई कहाँ गइल,   मइया- माई  कहाँ गइल,  धुधुका , गुल्लक कहाँ गइल,  मिलल, भेंटाइल  कहाँ गइल,       कान्ह - भेड़इया कहाँ गइल,       ओल्हापाती कहाँ गइल,  घुघुआ माना कहाँ  गइल,  उ चंदा मामा कहाँ  गइल,      पटरी क चुमउवल कहाँ गइल,      दुधिया क बोलउल कहाँ गइल,   गदहा चढ़वइया कहाँ गइल,   उ घोड़ कुदइया कहाँ गइल!!                  Copy@viranjy

काशी से स्वर्ग द्वार बनवासी भाग ३

                     का शी से स्वर्ग द्वार बनवासी तक भाग ३ अब हम लोग वहाँ की आबोहवा को अच्छी तरह समझने लगे थे नगरनार जंगल को विस्थापित कर स्वयं को पुष्पित - पल्लवित कर रहा था बड़ी - बड़ी चिमनियां साहब लोग के बंगले और आवास तथा उसमें सुसज्जित क्यारियों को बहुत सलीके से सजाया गया था परन्तु जो अप्रतीम छटा बिन बोइ ,बिन सज्जित जंगली झाड़ियों में दिखाई दे रही थी वो कहीं नहीं थी| साल और सागौन के बहुवर्षीय युवा, किशोर व बच्चे वृक्ष एक कतार में खड़े थे मानो अनुशासित हो सलामी की प्रतीक्षा में हों... इमली, पलाश, जंगली बेर , झरबेरी और भी बहुत अपरिचित वनस्पतियाँ स्वतंत्र, स्वच्छन्द मुदित - मुद्रा में खड़ी झूम रहीं थी | हमने उनका दरश - परश करते हुए अगली सुबह की यात्रा का प्रस्ताव मेजबान महोदय के सामने रखा | मेजबान महोदय ने प्रत्युत्तर में तपाक से एक सुना - सुना सा परन्तु अपरिचित नाम सुझाया मानो मुंह में लिए बैठे हों.. " गुप्तेश्वर धाम " | नाम से तो ईश्वर का घर जैसा नाम लगा हम लोगों ने पूछा कुल दूरी कितनी होगी हम लोगों के ठहराव स्थल से तो ...