Skip to main content

डड़कटवा के विरासत

 डड़कटवा के विरासत जब सावन आवेला त रोपनी आ खेती जमक जाले , लोग भोरही फरसा (फावड़ा) लेके खेत के हजामत बनावे चल दे ला , ओहमें कुछ लोग स्वभाव से नीच आ हजामत में उच्च कोटि के होला ओहके डड़कटवा (खेत का मेड़ काट कर खेत बढाने की नाजायज चेष्टा रखने वाला व्यक्ति )के नाम  से जानल जाला .. डड़कटवा हर गांव में  लगभग हर घर में  पावल जाले , डड़कटवा किस्म के लोग कई पुहुत (पुश्त) तक एह कला के बिसरे ना देलन  , कारण इ होला की उनकर उत्थान -पतन ओही एक फीट जमीन में  फंसल  रहेला  , डड़कटवा लोग एह कला के सहेज (संरक्षित ) करे में सगरो जिनिगी खपा देलें आ आवे वाली अपनी अगली पीढ़ी के भी जाने अनजाने में सीखा देबेलें , डड़कटवा के  डाड़ (खेत का मेड़) काट के जेवन विजय के अनुभूति होखे ले , ठीक ओइसने जेइसन  पढ़ाकू लइका के केवनो परीक्षा के परिणाम आवे पर पास होइला पर खुशी होखे ले |       कुल मिला के जीवन भर डाड़ काट के ओह व्यक्ति की नीचता के संजीवनी  मिलेले आ ओकर आत्मा तृप्त हो जाले बाकी ओके भ्रम रहेला की खेत बढ़ गईल , काहे की ,एकगो कहाउत कहल जाले की...

नींव का निर्माण



              नींव का निर्माण
मुझे नहीं लगता की कोई भूल पाता है, अपने नींव का निर्माण वो बचपन का स्कूल, स्कूल के साथी, गुरुजन- गुरुजनों के उपनाम, वो खेल की  जगह - समकालीन खेल, डंटाई-कुटाई, वो रस्ते की शरारत  सबको याद होंगे हमें भी याद है! 
                      हमारा भी एक स्कूल था , हार्टमन इण्टर कालेज, हार्टमनपुर! 
अब समझ में आता है, कि वह केवल स्कूल  ही नहीं था, हम लोगों के निर्माण की शाला थी  !
   वह सिस्टर क्रांसेसिया का अनुसाशन, सिस्टर मंजूषा की ममतामयी  खेल परिस्थितियां, श्री वीरेंद्र यादव सर का  हिन्दी का सरस वाचन, श्री महानन्द  सर का सरस अधिगम, श्री श्रीराम सर का नाटकीय व रोचक अध्यापन, श्री चन्द्रिका गुरु जी जो कुछ दिन बाद में परिषदीय स्कूल में चले गए  मेरे लिए कम रुचि का विषय गणित पढ़ाया जाना   तथा  श्री श्याम बिहारी गुरु का  अध्यापन! 
      दोपहर के भोजन के समय चांपाकल पर भीड़ लगना  टीफिन  से टीफिन की लड़ाई तथा घण्टी बजते ही फिल्ड में चील और गिद्धों का आसमान में मड़राना  कभी- कभी हाथ से रोटी, पूड़ी, पराठा लेकर उड़ जाना , अब तो किसी को नहीं दिखता होगा! 
खाना खाकर तुरंत खेलने के लिए समय बचा लेना फिर दौड़ना -भागना  अब भी होता होगा, स्कूल का बड़ा परिसर हरियाली, श्रीराम चना जो अपने आप में विशेषता लिए था जो केवल और केवल  वहीं  इस स्लोगन "इहाँ रहा चाहे इलाहाबाद रहा श्रीराम चना खा के आबाद रहा" के साथ हम लोगों की ही परीक्षा कांपियों  के पन्ने फाड़कर मिलता था ! 
उंतराव  के सेठ का छोला, सूखा चना तथा खुर्मा भी नहीं भूल सकता और नाहीं तिवारी जी की स्टेशनरी गुमटी, संजीत पुस्तक भण्डार की यादें ही बिसारी  जा सकती हैं, 
   एक से पांच और छ: से बारहतक की कक्षाएं एक ही परिसर में चलती थी परन्तु गणवेश और परिवेश का अलग होना बड़ा ही रोचक लगता था! 
अनुसाशन इतना कि कोई दीवार न होते हुए भी एक मानक रेखा कोई पार न करता!  हम लोग जब कक्षा पांच में पढ़ने लगे तो उत्सुकता बढी आसमानी शर्ट और नीली पैंट त्याग कर सफेद शर्ट और खाकी पैंट धारण करने की उत्कट इच्छा थी और पूरी हुइ अब अपने को सिनियर और बड़े भैया के समकक्ष मानने लगे अपने आप को अब गम्भीरता आ गयी,  अब हम साथियों  अभिषेक, रविकान्त, हरीश, मनोज, झब्लू      हिमांशु, विवेक, मंजय, विनित,उमेश, शैल पति, प्रियदर्शी,  नैन, सुजीत, ब्रिजेश, तथा गिरिजा के साथ नये      चेहरे भी सम्मिलित हुए और  गिनती में ही लेकिन आधी आबादी का दखल पहली बार हुआ प्राथमिक के बाद , (पहले  कक्षा पांच के बाद केवल लड़के पढ़ते थे)   गुरुजनों के चेहरे बदले, श्री देवनाथ सर का हिन्दी का अक्षर में बेसुमार सुधार होठ चाटते और गर्दन  टेढ़ी कर पीछे जाकर देखना और फिर मिटाना सुधारना, दुष्टवा का सम्बोधन, श्री भदेश्वर राय सर की गणित और , अंगुली से चश्मा संभालते हुए   , लो -लो-लो के साथ दो छड़ी की अनगिनत मार फिर भी सब की हंसी का न थमना, श्री धर्मचन्द सर का आंख मूंद कर  लोरकी के भाव में  परन्तु स्थायी अंग्रेजी अध्यापन  श्री भगवान सर की गणित, सीडी जान सर की अंग्रेजी व संचयिका  जो बचत का बीज बो गई,श्री राजेश कुशवाहा सर का एक सांस में विज्ञान की परिभाषाएं यथेष्ट भावभंगिमा  के साथ दोहराना   कैसे भूल सकता है, वहीं    ए के सिंह सर का अनुसाशनात्मक उबाऊ भाषण  पर उसी में उन पंक्तियों की प्रतिक्षा "किसी की याद में बैठा किसी की याद करते हूं"    राष्ट्रीय पर्वों पर श्री मिश्री सिंह यादव सर (पी टी टीचर) के चिरपरिचित अंदाज के कासन  "गाइ छोटे- छोटे कदम👣 लेकर चलेंगे"  भारत माता की जय,दिवंगत नेताओं के लिए अमर रहें, तथा जीवित नेताओं के लिए जिन्दाबाद के नारे लगेंगे"  जब    गुस्साये रहते तो कहते        " इहाँ गोंसाई  के मठिया बनवले हवे, लगब भूलइले   गदहा जस पीटे"   पर मारते कभी नहीं,  श्री महात्मा प्रसाद सर का कला कौशल ये आज भी  नहीं भूलते! श्री फूलचंद  माली,      श्रीमती फूलमति देवी  घर के बाहर माँ सी ध्यान रखने वाली, श्री दशरथ गेट कीपर  भी थे!! 
गांधी जयन्ती का श्रमदान दिवस, बाल दिवस का मेला गुरुजनों के अपने- अपने स्टाल और उनके द्वारा उपलब्ध खेल के अवसर और  उनके द्वारा अपने पक्ष में बढ़त अब भी याद है, बातें और भी है ं पर जगह कम पड़ जायेगी फिर कभी... 

क्या आपको भी याद है तो कमेंट बॉक्स में साझा करें देखें आपको कितना याद है.. हमें भी बताएं...

Comments

  1. भाई सबको अपना बचपन याद आता है। कोई उन्हें भूल नहीं पाता है।

    ReplyDelete
  2. Bahut hi sundar rachana...keep it up....No one can forget their school days...

    ReplyDelete
    Replies
    1. आभार जो आप ने समय निकाल कर पढा और प्रतिक्रिया प्रेषित की

      Delete
  3. धन्यवाद जो आप लोगों ने सराहा

    ReplyDelete
  4. अपनी प्रतिक्रिया दीजिये

    ReplyDelete
  5. अपनी प्रतिक्रिया दीजिये

    ReplyDelete
  6. अपनी प्रतिक्रिया दीजिये

    ReplyDelete
  7. ईश्वर की कृपा जिस तरह बरस रही है आप पर तो एक दिन बहुत बड़े लेखक बनेंगे आप और ईश्वर से यही प्रार्थना है मेरी

    ReplyDelete
  8. दरी यादें ताज़ा हो गयी बस अपना बस नहीं है की वापस वहीं चले जायें

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

इसे साहस कहूँ या बद्तमीजी

इसे साहस कहूँ या     उस समय हम लोग विज्ञान स्नातक (B.sc.) के प्रथम वर्ष में थे, बड़ा उत्साह था ! लगता था कि हम भी अब बड़े हो गए हैं ! हमारा महाविद्यालय जिला मुख्यालय पर था और जिला मुख्यालय हमारे घर से 45 किलोमीटर दूर!  जिन्दगी में दूसरी बार ट्रेन से सफर करने का अवसर मिला था और स्वतंत्र रूप से पहली बार  | पढने में मजा इस बात का था कि हम विज्ञान वर्ग के विद्यार्थी थे, तुलना में कला वर्ग के विद्यार्थियों से श्रेष्ठ माने जाते थे, इस बात का हमें गर्व रहता था! शेष हमारे सभी मित्र कला वर्ग के थे ,हम उन सब में श्रेष्ठ माने जाते थे परन्तु हमारी दिनचर्या और हरकतें उन से जुदा न थीं! ट्रेन में सफर का सपना भी पूरा हो रहा था, इस बात का खुमार तो कई दिनों तक चढ़ा रहा! उसमें सबसे बुरी बात परन्तु उन दिनों गर्व की बात थी बिना टिकट सफर करना   | रोज का काम था सुबह नौ बजे घर से निकलना तीन किलोमीटर दूर अवस्थित रेलवे स्टेशन से 09.25 की ट्रेन पौने दस बजे तक पकड़ना और लगभग 10.45 बजे तक जिला मुख्यालय रेलवे स्टेशन पहुँच जाना पुनः वहाँ से पैदल चार किलोमीटर महाविद्यालय पहुंचना! मतल...

उ कहाँ गइल

!!उ कहाँ गइल!!  रारा रैया कहाँ गइल,  हउ देशी गैया कहाँ गइल,  चकवा - चकइया कहाँ गइल,         ओका - बोका कहाँ गइल,        उ तीन तड़ोका कहाँ गइल चिक्का  , खोखो कहाँ गइल,   हउ गुल्ली डण्डा कहाँ गइल,  उ नरकट- कण्डा कहाँ गइल,           गुच्ची- गच्चा कहाँ गइल,           छुपा - छुपाई कहाँ गइल,   मइया- माई  कहाँ गइल,  धुधुका , गुल्लक कहाँ गइल,  मिलल, भेंटाइल  कहाँ गइल,       कान्ह - भेड़इया कहाँ गइल,       ओल्हापाती कहाँ गइल,  घुघुआ माना कहाँ  गइल,  उ चंदा मामा कहाँ  गइल,      पटरी क चुमउवल कहाँ गइल,      दुधिया क बोलउल कहाँ गइल,   गदहा चढ़वइया कहाँ गइल,   उ घोड़ कुदइया कहाँ गइल!!                  Copy@viranjy

काशी से स्वर्ग द्वार बनवासी भाग ३

                     का शी से स्वर्ग द्वार बनवासी तक भाग ३ अब हम लोग वहाँ की आबोहवा को अच्छी तरह समझने लगे थे नगरनार जंगल को विस्थापित कर स्वयं को पुष्पित - पल्लवित कर रहा था बड़ी - बड़ी चिमनियां साहब लोग के बंगले और आवास तथा उसमें सुसज्जित क्यारियों को बहुत सलीके से सजाया गया था परन्तु जो अप्रतीम छटा बिन बोइ ,बिन सज्जित जंगली झाड़ियों में दिखाई दे रही थी वो कहीं नहीं थी| साल और सागौन के बहुवर्षीय युवा, किशोर व बच्चे वृक्ष एक कतार में खड़े थे मानो अनुशासित हो सलामी की प्रतीक्षा में हों... इमली, पलाश, जंगली बेर , झरबेरी और भी बहुत अपरिचित वनस्पतियाँ स्वतंत्र, स्वच्छन्द मुदित - मुद्रा में खड़ी झूम रहीं थी | हमने उनका दरश - परश करते हुए अगली सुबह की यात्रा का प्रस्ताव मेजबान महोदय के सामने रखा | मेजबान महोदय ने प्रत्युत्तर में तपाक से एक सुना - सुना सा परन्तु अपरिचित नाम सुझाया मानो मुंह में लिए बैठे हों.. " गुप्तेश्वर धाम " | नाम से तो ईश्वर का घर जैसा नाम लगा हम लोगों ने पूछा कुल दूरी कितनी होगी हम लोगों के ठहराव स्थल से तो ...