स्कूल" स्कूलों का मर्जर : वंचितों से छीनी जा रही है शिक्षा की आखिरी उम्मीद
— एक सामाजिक, शैक्षिक और नैतिक समीक्षा
"शिक्षा एक शस्त्र है जिससे आप दुनिया को बदल सकते हैं" — नेल्सन मंडेला।
लेकिन क्या हो जब वह शस्त्र वंचितों के हाथ से छीन लिया जाए?
उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा प्राथमिक विद्यालयों के मर्जर (विलय) की नीति न केवल शिक्षा का ढांचा बदल रही है, बल्कि उन बच्चों की उम्मीदों को भी कुचल रही है जिनके पास स्कूल ही एकमात्र रोशनी की किरण था।
1. मर्जर की वजहें – प्रशासनिक या जनविरोधी?
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सरकार यह कहती है कि बच्चों की कम संख्या वाले विद्यालयों का विलय करना व्यावसायिक और प्रशासनिक दृष्टि से उचित है। पर यह सवाल अनुत्तरित है कि –
क्या विद्यालय में छात्र कम इसलिए हैं क्योंकि बच्चों की संख्या कम है,
या इसलिए क्योंकि व्यवस्थाएं और भरोसा दोनों टूट चुके हैं?
शिक्षक अनुपात, अधूरी भर्तियाँ, स्कूलों की बदहाली और गैर-शैक्षणिक कार्यों में शिक्षकों की नियुक्ति — क्या यह स्वयं सरकार की नीति की विफलता नहीं है?
2. गांवों के बच्चों के लिए स्कूल सिर्फ शिक्षा केंद्र नहीं, एक जीवन रेखा है
प्राथमिक विद्यालय वंचित तबकों के बच्चों के लिए सिर्फ एक पाठशाला नहीं है, बल्कि उनका सामाजिक और भावनात्मक आधार है।
वे बच्चे जिनके माता-पिता मजदूरी करने जाते हैं,
वे बहनें जो छोटे भाई-बहनों को साथ लेकर स्कूल आती हैं,
वे छात्र जो ग्रामीण कठिनाइयों के बावजूद नियमित उपस्थिति बनाए रखते हैं —
उनके लिए स्कूल एक सुरक्षित स्थान है, एक परिवार है।
अब जब स्कूल मीलों दूर भेजा जाएगा, तब क्या इन बच्चों को स्कूल छोड़ना मजबूरी नहीं होगी?
3. अभिभावकों की परिस्थिति – संघर्षों की दास्तान
आप उन अभिभावकों की बात करिए जो कहते हैं:
"गुरुजी! खेत की कटाई हो जाए तो बच्चा आएगा।"
या फिर वे मां-बाप जो पढ़े-लिखे नहीं हैं लेकिन गुरुजी पर भरोसा करके बच्चा भेजते हैं।
ऐसे अभिभावकों के लिए "नजदीक का सरकारी स्कूल" ही एक भरोसा था। मर्जर उस भरोसे की चिता पर बैठा निर्णय है।
4. संसाधन घटाना = सरकारी विद्यालयों को असहाय बनाना
सरकारी स्कूलों में संसाधनों की कमी, भवनों की जर्जर स्थिति, खेल सामग्री और डिजिटल उपकरणों का अभाव, प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी — ये सब धीरे-धीरे सरकारी विद्यालयों को अप्रासंगिक बना रहे हैं।
जब आप सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता नहीं सुधारते, और फिर उस आधार पर उन्हें बंद कर देते हैं — तो यह नीति नहीं, बल्कि नियोजित विनाश है।
5. निजी स्कूलों को खुली छूट – किसके लिए?
सरकार सरकारी स्कूलों के मर्जर में तत्पर है, लेकिन निजी विद्यालयों की मनमानी फीस, मानकहीन भवन, अपंजीकृत शिक्षक — इन पर कोई अंकुश नहीं।
क्या यह निजीकरण की वह कड़वी सच्चाई नहीं है, जहां गरीब का बच्चा शिक्षा से बाहर कर दिया जाता है?
6. शिक्षा से वंचित = सवालों से वंचित
सरकारी शिक्षा प्रणाली को खत्म करने की एक छिपी मंशा यह भी है कि अगर गरीब बच्चा पढ़ेगा ही नहीं, तो सवाल करेगा ही नहीं।
शिक्षा ही वह माध्यम है जो असमानता पर प्रश्न उठाती है, सरकारों की जवाबदेही तय करती है।
जब आप शिक्षा को एक ‘सेवा’ की जगह ‘सामान’ बना देते हैं, तब गरीब का बच्चा सिर्फ ‘श्रमिक’ बनता है, ‘शिक्षित नागरिक’ नहीं।
7. सरकार को चाहिए?
अगर शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, परिवहन — सब कुछ निजी हाथों में सौंप दिया जाए, तो सवाल यह बनता है:
सरकार फिर बचेगी किसलिए?
सिर्फ टैक्स वसूलने के लिए? या फिर अमीरों के लिए नीतियाँ बनाने के लिए?
निष्कर्ष
सरकारी प्राथमिक विद्यालय सिर्फ दीवारें और छत नहीं हैं। वे उस भारत का आधार हैं जिसे हम ‘समावेशी’, ‘लोकतांत्रिक’ और ‘समानतावादी’ बनाना चाहते हैं।
मर्जर की नीति को फिर से सोचने की आवश्यकता है। यह सिर्फ स्कूलों का बंद होना नहीं, यह सपनों की हत्या है।
यह उन बच्चों की उम्मीद का अंत है जो सुबह एक कटोरी दाल-चावल और गुरुजी की मुस्कान के सहारे जिंदगी को बेहतर बनाने का सपना देख रहे थे।
अंततः
यदि सरकार यह सोचती है कि शिक्षा अब उनकी जिम्मेदारी नहीं, तो फिर यह भी तय कर लेना चाहिए कि लोकतंत्र केवल सत्ता पाने का माध्यम नहीं रह सकता। क्योंकि जब जनता सवाल करना बंद कर देती है, तब लोकतंत्र तानाशाही की ओर फिसलने लगता है।
Primary school marger or closure..
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