डड़कटवा के विरासत जब सावन आवेला त रोपनी आ खेती जमक जाले , लोग भोरही फरसा (फावड़ा) लेके खेत के हजामत बनावे चल दे ला , ओहमें कुछ लोग स्वभाव से नीच आ हजामत में उच्च कोटि के होला ओहके डड़कटवा (खेत का मेड़ काट कर खेत बढाने की नाजायज चेष्टा रखने वाला व्यक्ति )के नाम से जानल जाला .. डड़कटवा हर गांव में लगभग हर घर में पावल जाले , डड़कटवा किस्म के लोग कई पुहुत (पुश्त) तक एह कला के बिसरे ना देलन , कारण इ होला की उनकर उत्थान -पतन ओही एक फीट जमीन में फंसल रहेला , डड़कटवा लोग एह कला के सहेज (संरक्षित ) करे में सगरो जिनिगी खपा देलें आ आवे वाली अपनी अगली पीढ़ी के भी जाने अनजाने में सीखा देबेलें , डड़कटवा के डाड़ (खेत का मेड़) काट के जेवन विजय के अनुभूति होखे ले , ठीक ओइसने जेइसन पढ़ाकू लइका के केवनो परीक्षा के परिणाम आवे पर पास होइला पर खुशी होखे ले | कुल मिला के जीवन भर डाड़ काट के ओह व्यक्ति की नीचता के संजीवनी मिलेले आ ओकर आत्मा तृप्त हो जाले बाकी ओके भ्रम रहेला की खेत बढ़ गईल , काहे की ,एकगो कहाउत कहल जाले की...
इस महिला का नाम है पद्मशीला तिरपुड़े... ( इन्स्पेक्टर )
महाराष्ट्र भण्डारे ज़िले की वे निवासी हैं और इन्होंने प्रेम विवाह किया है। पति के घर के हालात विकट होने से उन्होंने खलवट्टा और पत्थर के सिलबट्टे बेचते हुए और इस बच्चे को संभालते हुए ,यशवंतराव चाव्हाण मुक्त विश्वविद्यालय से शिक्षा हासिल कर, महाराष्ट्र राज्य MPSC में
वे बौद्ध परिवार से आती हैं...
उनकी मेहनत को हम सैल्यूट करते हैं।
शिक्षा में परिस्थिति व्यवधान नहीं बनती, परिस्थिति केवल बहाना होती है। इस महिला ने ये साबित कर दिखाया है।
परिस्थितियों का रोना तो कायर लोग रोते हैं, कि अगर हमारे साथ ऐसा होता तो हम ऐसा कर देते!
हमें फला सुविधा मिल गई होती तो हम अमुक कार्य कर रहे होते!
ऐसा नहीं होता है हमें अपना मुक्कदर खुद बनाना होता है, क्योंकि हम दूसरे के भरोसे नहीं बैठ सकते हैं, अकर्मण्यता का लबादा ओढ़े, मक्कार लोगों को हमने कहते सुना है, भगवान है ं न, जब जीवन उन्होंने दिया है तो दाना का इन्तजाम भी वही करेंगे,
"अरे मूर्ख तू भगवान के भरोसे बैठा है, क्या पता भगवान भी तुम्हारे भरोसे बेठे हों "
उपर्युक्त तस्वीर को देखकर ऐसा ही लग रहा है जैसा "महाप्राण निराला " ने लिखा...
वह तोड़ती पत्थर;
देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर-
वह तोड़ती पत्थर।
कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;
श्याम तन, भर बंधा यौवन,
नत नयन, प्रिय-कर्म-रत मन,
गुरु हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार:-
सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार।
चढ़ रही थी धूप;
गर्मियों के दिन,
दिवा का तमतमाता रूप;
उठी झुलसाती हुई लू
रुई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगीं छा गई,
प्रायः हुई दुपहर :-
वह तोड़ती पत्थर।
देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं,
सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार।
एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-
वह तोड़ती पत्थर......
I am inspired by this story
ReplyDeleteIf you are also inspired by this story,
ReplyDeleteSo kindly write in the comment box....
I am inspired by this story
ReplyDeleteहर छात्र को एक बार ऐसे स्टोरी पढ़ना चाहिए।
ReplyDeleteधन्यवाद वैभव जी, आप ने समय देकर पढा और प्रतिक्रिया प्रेषित की
DeleteIss level ki hindi mujhe nahi aati
ReplyDeleteजी ! आभारी हूँ आप का जो आप ने हमें अवगत कराया ,श्रीमान जी इससे उच्च कोटि की मैं नहीं लिख पाऊंगा, सामान्य जनमानस की भाषा लिखने का प्रयास करता हूँ.. .
DeleteShould learn who always blames others
ReplyDeleteYou are right
DeleteShould learn who always blames others
ReplyDeleteYes
Deleteyes
ReplyDeleteजी
Deleteप्रेरक प्रसंग
ReplyDeleteप्रेरक प्रसंग
ReplyDeleteजी
Delete“ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले
ReplyDeleteख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है”
अल्लामा इक़बाल (Allama Iqbal) साहब की पंक्तियों का सुंदर चरित्र चित्रण ।
बहुत ही प्रेरक प्रसंग
वाह, आप की बात
ReplyDeleteशानदार, जबरदस्त, जिंदाबाद....
ReplyDeleteअत्यन्त प्रेरक प्रसंग...बहुत बहुत धन्यवाद आपको शेयर करने के लिए 🙏🙏
Inspiring story.
ReplyDeleteAtisundr great work
ReplyDeleteसाधुवाद आपको
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