एक दलित व्यथा को मुखरित करती कविता
क्या खाते हो भाई?
“जो एक दलित खाता है साब!”
नहीं मतलब क्या-क्या खाते हो?
आपसे मार खाता हूं
कर्ज़ का भार खाता हूं
और तंगी में नून तो कभी अचार खाता हूं साब!
नहीं मुझे लगा कि मुर्गा खाते हो!
खाता हूं न साब! पर आपके चुनाव में।
उपरोक्त पंक्तियों में चुनावी मौसम का बखूबी प्रदर्शन है,चाहे पंचायत चुनाव हो या विधानसभा अथवा आम चुनाव कमोबेश स्थिति यही रहती है |उससे पहले दलित और पिछड़े हिंदू की स्थिति यही है |
क्या पीते हो भाई?
“जो एक दलित पीता है साब!
नहीं मतलब क्या-क्या पीते हो?
छुआ-छूत का गम
टूटे अरमानों का दम
और नंगी आंखों से देखा गया सारा भरम साब!
मुझे लगा शराब पीते हो!
पीता हूं न साब! पर आपके चुनाव में।
बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर ने संविधान में विभिन्न प्रावधान पिछड़ों और दलित समाज के लिए किये, केवल इसलिए नहीं कि उन्हें जिम्मेदारी दी गई थी| उन्होंने इसलिए भी किया क्योंकि उन्होंने इस जलालत भरी जीवन शैली को जीकर देखा था | इस घुटन भरी जिन्दगी से रुबरु थे बाबा साहब |
क्या मिला है भाई
“जो दलितों को मिलता है साब!
नहीं मतलब क्या-क्या मिला है?
ज़िल्लत भरी जिंदगी
आपकी छोड़ी हुई गंदगी
और तिस पर भी आप जैसे परजीवियों की बंदगी साब!
मुझे लगा वादे मिले हैं!
मिलते हैं न साब! पर आपके चुनाव में।
इन सामाजिक विषमताओं के होते हुए भी मनुष्य जीवित है और खुश रहने का प्रयास करता है | इसका मुख्य कारण अशिक्षा है | अशिक्षा और अशिक्षा से दो- दो हाथ करने के लिए सरकारों के दोहरे मापदंड के स्कूल हैं | एक स्कूल संसाधन विहीन पर नि: शुल्क | दूसरा स्कूल संसाधनों से परिपूर्ण परिवेश और महंगे प्रवेश | नींव पड़ गयी दलित को दलित रखने का |सरकारें चुनावों और मंचों तथा आंकड़ों में हर बजट में लगभग पाट ह देती हैं यह खाई |पर धरातल पर यह खाई और चौड़ी होती जा रही है |
प्रतीक्षा है यह खाई कब भरेगी और उससे निकलेगा समतामूलक भारत ||
जय हिंद
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